वे बड़े मुखर व्यक्ति हैं, मजाक करने या फिर अपनी कोई टीका टिप्पणी करने से वे कभी नहीं चूकते, परन्तु क्या मिहिर देसाई वास्तव में ऐसे हैं । बड़े बड़े विवादास्पद मामलों से जूझते हुए भी वे हमेशा तनावमुक्त दिखाई देते हैं । मानवाधिकार तथा उसके कानून के प्रति सांमजस्य की आवश्यकता को पूरा करने के लिए वर्ष 1987 में कॉलिन गोंसाल्विस, गायत्री सिंह और देसाई ने मिलकर ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क का गठन किया था ।
हमारे समाज में उत्पीडि़त वर्ग की सहायतार्थ मानवाधिकार के प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में पिछले अनेक वर्षों से ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क का नाम काफी जाना माना है । अब यद्यपि देसाई ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क से अलग हो गए हैं परन्तु उत्पीडि़तों की सहायता के लिए वे अभी भी काम कर रहे हैं ।
बॉर एंड बैंच के अनुज अग्रवाल के साथ आयोजित इस साक्षात्कार में देसाई से शिक्षा के चयन, मानवाधिकार के लिए किए जा रहे कार्यों में राजनीति के दखल तथा अन्य अनेक मुद्दो पर बातचीत की गई है ।
बॉर एंड बैंच : ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क को शुरू करने का औचित्य क्या था ?
वर्ष 1989 में मिहिर देसाई ने गायत्री सिंह तथा कॉलिन गोंसाल्विस के साथ मिलकर ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क का गठन किया था ।
मि.दे. : कानून की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात मैंने लगभग दो वर्षों तक इंदिरा जयसिंह के साथ काम किया । उसके पश्चात वर्ष 1987 में वहां काम कर रहे अपने दो मित्रों, कॉलिन गोंसाल्विस और गायत्री सिंह – के साथ मिलकर हमने अपना अलग काम शुरू करने पर विचार किया । यह वर्ष 1987 की बात है । बाद में वर्ष 1989 में हमने ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क का गठन किया था ।
हमें ऐसा महसूस हुआ था कि हमारे देश में उत्पीडि़तों की सहायतार्थ अनेकों वकील काम कर रहे हैं परन्तु हमें ऐसा प्रतीत होता था कि इसके लिए कहीं भी किसी प्रकार के अनुकूल कार्य नहीं हो पा रहे हैं । एक दूसरे से सम्पर्क बनाए रखना काफी आवश्यक था । हमें यह भी प्रतीत हुआ कि देश में एक ऐसे संगठन का निर्माण किए जाने की आवश्यकता है जो कानून तथा मानवाधिकार पर एक साथ ध्यान केंद्रित कर सके । बस यहीं से हमने ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क का गठन करना शुरू कर दिया था ।
बी एंड बी : क्या आपको ऐसा लगता है कि आज के हालात में ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क का गठन करना ज्यादा आसान हो सकता था ?
मि.दे. : कदापि नहीं , वास्तव में अब ऐसा कर पाना ज्यादा कठिन होगा । उस समय वित्तीय कठिनाइयां बहुत ज्यादा हुआ करती थी , राजनैतिक कठिनाइयां नहीं हुआ करती थीं जिनका सामना आपको आज के हालात में करना पड़ सकता है ।
बी.एंड बी. : वित्तीय कठिनाइयों का सामना आपने कैसे किया ?
मि.दे. : हमारे सितारे अच्छे थे क्योंकि ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क का गठन करने से पहले ही हम सभी प्रैक्टिस कर रहे थे । समाज में हम में से हर किसी के ट्रेड यूनियन, पटरियों पर रहने वाले लोगों इत्यादि से अपने अपने सम्पर्क हुआ करते थे । हमने शुरू में उनके मामले लेने प्रारम्भ किए ।
ये लोग ऐसे भी नहीं थे कि थोडा बहुत भुगतान भी न कर सकें । बहुत ही ज्यादा गरीब लोगों को छोड़कर अधिकांश व्यक्ति भुगतान करने में सक्षम थे । वे हमें इतना भुगतान तो नहीं कर सकते थे जितना कॉरपोरेट कम्पनियां करती हैं परन्तु उनसे हमें जो मिलता उसमें से हम थोड़ा - बहुत बचा ही लेते थे ।
बी एंड बी : ऐसा क्या था जिस कारण आप तीनों आगे बढ़ते चले गए ?
मि.दे. : जब हमने ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क की स्थापना की थी तो हमारे सामने दो तरह के विचार हुआ करते थे । एक तो आप समझ ही गए होगें कि मुकदमेबाजी थी परन्तु मुकदमेबाजी के अलावा एक दूसरा उद्देश्य था तथ्यों की खोज करना, जजों की अध्यक्षता में ट्रिब्यूनलों की स्थापना करना, देश भर में बैठकें आयोजित करके संवेदनशीलता जागृत करना ।
मानवाधिकार के मुद्दे पर बात करने के लिए काफी यात्राएं करनी पड़ती थी, बैठकें आयोजित करनी होती थीं, जनहित याचिकाएं इत्यादि दाखिल करनी होती थी । ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क से पूर्व मैं इंदिरा जयसिंह के साथ लॉयर्स कोलेक्टिव का फांउडर ट्रस्टी हुआ करता था । ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क में हमने कॉम्बेट लॉ की शुरूआत 1990 के दशक के मध्याह्न में की और इसका मैं सह सम्पादक हुआ करता था ।
बी एंड बी : आपको कब ऐसा यकीन हुआ कि यह जो हो रहा है आप यही करना चाहते थे ?
मि.दे. : मुझे नहीं लगता मुझे कभी ऐसी कोई “भविष्यवाणी” हुई थी । परन्तु जब मैंने कानून के कामकाज की ओर अपना गंभीर रूख बनाया तो मुझे यह भली-भांति पता था कि मैं क्या करना चाहता हूं । मैंने कानून की शिक्षा न्यू लॉ कालेज से प्राप्त की थी । मेरा कहने का मतलब यह नहीं है कि मैंने कानून की “शिक्षा” प्राप्त की थी अपितु मैंने कुछ लैक्चर अवश्य अटैंड किए थे । (मुस्कराहट)
बी एंड बी : क्या बम्बई में रहते हुए आपने अपने सॉलिसिटर्स अंकल से सहायता प्राप्त की थी ?
मि.दे. : सही मायनों में तो नहीं । उन्होंने मुझसे पूछा था कि क्या मैं किसी प्रकार की ब्रीफिंग चाहता हूं परन्तु उस समय मैंने यह कहते हुए न कह दिया था कि मैं खुद ही कुछ करना चाहता हूं । मैंने उनसे कहा था कि जब कभी मुझे उनकी मदद की आवश्यकता होगी तो मैं अवश्य मांग लूंगा । अब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि शायद उस समय मेरा आत्मविश्वास कमजोर हुआ करता था और मुझे ऐसा महसूस हुआ होगा कि मैं स्वंय इससे जूझकर और स्वतंत्र रहकर तथा खुद अपनी प्रैक्टिस जमाकर मैं इसे मजबूत बना सकूंगा । जो कि मैं वास्तव में करने में समर्थ हो पाया था । इस सवाल का बस मैं यही जवाब दे सकता हूं ।
बी एंड बी : क्या मानवाधिकारों के मुद्दे पर काम करने वाले आप जैसे लोग काफी कम हुआ करते थे ?
मि.दे. : यह मानवाधिकार की मुकदमेबाजी के संबंध में हमारे नजरिए पर भी निर्भर करता है । हमारे कुछ सिद्धांत होते हैं जिनका हम अनुकरण करते हैं । यह राजनीति से प्रेरित निर्णय था और मानवाधिकार के लिए मुकदमेबाजी करना इसका एकमात्र उद्देश्य कदापि नहीं था ।
परम्परागत रूप से मेरी विचारधारा मार्क्सवादी है । मानवाधिकारों के प्रति किए जाने वाले अपराधों को मैं संरचनात्मकता के प्रति किया गया अपराध मानता हूं ।
राजनीतिक निर्णय से मेरा अभिप्राय यह है कि परम्परागत रूप से मेरी विचारधारा मार्क्सवादी है ... ठीक है ? मानवाधिकारों के प्रति किए जाने वाले अपराधों को मैं संरचनात्मकता के प्रति किया गया अपराध मानता हूं । उदाहरण के तौर पर किसी महिला के प्रति की जाने वाली हिंसा को मैं पुरूष जाति द्वारा की जाने वाली हिंसा का भाग मानता हूं और इसके लिए मैं किसी एक व्यक्ति को हिंसा का दोषी नहीं मानता । मजदूरों के प्रति की जाने वाली हिंसा को मैं ऐसी संरचनात्मक हिंसा के तौर पर देखता हूं जो एक वर्ग किसी दूसरे वर्ग के प्रति करता है ।
हमने यह निर्णय लिया था कि वैवाहिक मामलों के लिए हम पुरषों द्वारा महिलाओं के खिलाफ दाखिल किए जाने वाले अथवा नियोक्ता द्वारा अपने कर्मचारियों के खिलाफ दायर किए जाने वाले मामलों को नहीं लेगें । इसी प्रकार के कुछ और निर्णय भी हमने लिए थे । हम यह कार्य केवल मानवाधिकारों के लिए नहीं करते थे । इसमें राजनैतिक निर्णय का जोर कहीं अधिक था । हम सभी की विचारधारा एक ही थी ।
बी एंड बी : वर्ष 2011 में लिए गए एक साक्षात्कार में आपने बिनायक सेन के बारे में बात की थी, आपने कहा था कि यह कोई नहीं कह सकता कि भविष्य में राजद्रोह कानून का प्रयोग किस प्रकार किया जा सकेगा । आपने यह भी कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए को समाप्त कर दिया जाना चाहिए ।
मि.दे. : मुद्दा यह है कि कोई भी किसी को दंड देने में रूचि नहीं रखता है । यह जो कानून हैं किसी को केवल अपराधी ठहराने के लिए नहीं बनाए गए हैं । इनका कुछ तेज तर्रार प्रभाव भी होना चाहिए । आप किसी मुजरिम को 15-20 साल के लिए जेल में रखते हैं और आम तौर पर ऐसा होने से उसके आसपास के लोग डर जाते हैं । दोष सिद्धि, या दोष सिद्धि नही – किसी को फर्क नहीं पड़ता है । ( किसी को फर्क नहीं पड़ता है )
यह कानून लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई मायने नहीं रखता है.... समझे ? मेरा अभिप्राय यह है कि सरकार को आखिर चिंता किसकी है ? क्या उकसाने वाले वक्तव्य जारी करने वालों की और हिंसा फैलाने वालों की ? इसके लिए अन्य कानून उपलब्ध हैं । भारतीय दंड संहिता में इनकी रोकथाम के लिए प्रावधानों की भरमार है ।
मृत्यु दंड के संबंध में भी मेरी यही विचारधारा है – इसे समाप्त किया जाना चाहिए ।
बी.एंड बी. : राजद्रोह के संबंध में आपसे हुई एक बातचीत के दौरान आपने असीम त्रिवेदी का उदाहरण दिया था । जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो अगले ही दिन बम्बई के मुख्य न्यायाधीश ने उनके मामले की सुनवाई की और उन्हें जमानत दे दी थी । क्या आपको इसमें हैरानी नहीं होती कि कन्हैया के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा क्यों नहीं किया ?
मि.दे. : बम्बई उच्च न्यायालय में जब यह हुआ था तो मुझे हैरानी हुई थी (हंसते हुए) । चलिए मैं आपको दूसरे तरीके से बताता हूं । नहीं, मुझे हैरानी होने जैसा कुछ नहीं हुआ था । उच्च न्याय तंत्र से मेरी अपेक्षाएं समय के साथ साथ बदलती जा रही हैं ।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि भविष्य में मानवाधिकार के प्रति होने वाले अपराध तो बढ़ेंगे ।
बी.एंड बी. : क्यों ?
मि.दे.: क्योंकि आज के राजनीति वर्ग में मैं एक तो आर्थिक नीतियों के प्रति नव-उदारवादता प्रणाली को देख रहा हूं और दूसरी ओर अत्याधिक साम्प्रदायिक एजेंडों को भी देख रहा हूं । आज का यह वर्ग दोनों का संयोजन है ।
मैं नही मानता कि मानवाधिकार के अपराधों के मामले में बी.जे.पी. की तुलना में कांग्रेस किसी प्रकार से भी बेहतर थी । इस प्रकार के द्विवर्ण बनाना नही चाहता परन्तु मानवाधिकार उल्लंघनों में हो रही बढ़ोतरी के लिए बी.जे.पी. का साम्प्रदायिक एजेंडा अतिरिक्त भूमिका निभा रहा है । बात चाहे गौमांस पर प्रतिबंध की हो, अथवा स्वयं को राष्ट्रवादी प्रमाणित करने की हो, वो आखिर होते कौन हैं मुझसे यह सवाल पूछने वाले ?
ग्रामीण क्षेत्रों में अनेकों मानवाधिकार उल्लंघन हो रहे हैं, चाहे वह खनन उद्योग हो या फिर ग्रामीण क्षेत्रों के निगमितिकरण का क्षेत्र हो जिसके कारण लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ता है । राज्य अपनी विधि व्यवस्था का प्रयोग निगमित सेक्टर की सहायता के लिए कर रहे हैं और अपनी मशीनरी का इस्तेमाल लोगों को अपना विरोध प्रकट करने से रोकने के लिए कर रहे हैं ।
इस प्रकार, एक तरफ तो वे विस्थापित होते हैं और दूसरी तरफ यदि वे विरोध करते हैं तो उन्हें जेल में डाल दिया जाता है । मुझे ऐसा महसूस होता है कि समय के साथ साथ दोनों स्तरों पर इस प्रकार के मानवाधिकारों के उल्लंघन में बढ़ोतरी ही होगी ।
बी.एंड बी. : आपके विचार में इसके लिए वकीलों को क्या करना चाहिए ?
मि.दे. : आप इन लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं इसके लिए आपको इसका विरोध करना चाहिए । हां, हम सभी स्थितियों से समझौता करने का प्रयास करते हैं । मैंने भी कुछ स्तरों पर ऐसे कुछ समझौते किए हैं जो यदि मैं नहीं करता तो मैं निचली अदालतों में प्रैक्टिस कर रहा होता । ऊपरी अदालतों की बजाए निचली अदालतों में अच्छे वकीलों की जरूरत अधिक है ।
बी.एंड बी. : क्यों ?
जगदालपुर लीगल एड ग्रुप के प्रति मेरी श्रद्धा है – वे ट्रॉयल कोर्ट स्तर पर वकालत के लिए अच्छी सेवाएं दे रहे हैं ।
मि.दे. : अनेकों मुद्दे उच्च न्यायालयों अथवा सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते हैं । सौ मामलों में से कोई एक मामला उच्च न्यायालय तक पहुंचता है । इस कारण से जगदालपुर लीगल एड ग्रुप के प्रति मेरी श्रद्धा है – वे ट्रॉयल कोर्ट स्तर पर वकालत के लिए अच्छी सेवाएं दे रहे हैं । उन्हें राज्य से लगभग खदेड़कर बाहर निकाल दिया गया था ।
आप देखें, ऐसे अपराधों का शिकार होने वाले 70-80% लोग गरीब तबके के होते हैं और यदि कानून उनकी सहायता नहीं करेगा तो किसी का भी वकील होना बेकार ही है । कर की चोरी के किसी मामले अथवा किसी बड़े मामले पर विजय हासिल करना सही है । परन्तु वकील होने के नाते आपको अपना कुछ समय मानवाधिकार के मामलों के लिए भी समर्पित करना चाहिए । किसी भी वकील को ऐसा करने से कोई रोकने वाला नहीं है । कुछ लोग योगदान देते भी हैं ।
बी एंड बी : क्या आपको यह मामला शिक्षा से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है अर्थात क्या विधि शिक्षा में इस प्रकार के कार्य के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता ?
मि.दे. : मेरे विचारानुसार इसके दो कारण हैं : एक तो लोग पैसे की जबान जानते हैं और दूसरे मुझे ऐसा नहीं लगता कि व्यवसायिक आचार संहिता के लिए अब किसी प्रकार की अनिवार्यता नहीं है । (हंसी)
ये नेशनल लॉ स्कूल वाला धंधा बड़ा ही मंहगा धंधा हैं । यहां से स्नातक होने के पश्चात आपके मन में आने वाला पहला विचार यह होता है कि यहां खर्च किए गए धन की वसूली किस प्रकार की जाए ।
आप देखें, ये नेशनल लॉ स्कूल वाला धंधा बड़ा ही मंहगा धंधा है । ये मेडिकल और इंजीनियरिंग की तरह ही है – यहां से स्नातक होने के पश्चात आपके मन में आने वाला पहला विचार यह होता है कि यहां खर्च किए गए धन की वसूली किस प्रकार की जाए ।
और इसी प्रकार बाकी लोगों के लिए विधि शिक्षा के लिए भी आर्थिक सहायता प्रदान की जानी जरूरी है । जब तक विधि शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता नहीं दी जाएगी तब तक यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि वकील ऐसे कामों [मानवाधिकार कानून] के लिए आगे बढ़ेंगे ।
मैं यह जानता हूं कि नेशनल लॉ स्कूलों में इसके लिए किसी गैर सरकारी संस्था के साथ 1 महीने की इन्टरनशिप अनिवार्य कर दी गई है । हां, यदि ऐसी कोशिश की जाए तो यकीनन लोगों का झुकाव इस ओर किया जा सकता है । परन्तु मेरा खुद का ऐसा मानना है कि इस दिशा में कुछ और भी किया जाना अनिवार्य है ।
बी.एंड बी. : क्या आपको न्याय शास्त्र में बड़े परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं, उदाहरण के तौर पर श्रम कानून आदि में ?
मि.दे. : मेरा ऐसा मानना है कि पिछले 15-20 वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने श्रम न्याय शास्त्र में अच्छे बदलाव किए हैं । अब श्रम न्यायालयों में मामले लम्बित होने की अवधि इतनी अधिक नहीं होती है । परन्तु इसका कारण यह भी है कि स्भी श्रमिक न्यायालय जा ही नहीं पाते । साथ ही संगठित कामगार वर्ग भी समाप्त होते जा रहे हैं । यहां तक कि पत्रकार भी इसी श्रेणी में आते हैं । पहले मेरे कुछ मित्र पत्रकार हुआ करते थे वे अब कामगार हो गए हैं । अब वे सब ठेके पर काम करने वाले मजदूर हैं । वे अपनी पसंद से ऐसे नहीं बने हैं । मेरा कहने का अभिप्राय यह है कि जब समाचार पत्रों के लिए विज्ञापन ज्यादा जरूरी होने लगते हैं तो ऐसा ही होता है ।
मैं यह समझता हूं कि सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले 15-20 वर्षों से खासकर श्रम कानून के बारे में काफी ज्यादा बदलाव किए हैं । कुछ सीमा तक तो अपराध कानून की दिशा में भी यह किया गया है अर्थात अपराध कानून के लिए अनेकों स्थापित सिद्धांत ऐसे थे जिन्हें नब्बे के दशक के अंत में और अगले दशक में बदला गया था ।
हमारे पास “दमनकारी” कानूनों की भी भरमार हैं जिनके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने समय समय पर समर्थनकारी कार्य किए हैं । मेरा विचार है कि इस दिशा में काफी अच्छे बदलाव हुए हैं ।
बी.एंड बी .: क्या आपका स्वभाव कटु है ?
मि.दे. : मैं आशावादी हूं । मेरा विश्वास है कि सब कुछ समय के साथ ठीक हो जाता है । मैं खुद यह मानता हूं कि कुछ बदलाव सामने आए हैं तथा न्यायालयों ने ऐसे बदलावों के लिए सकारात्मक भूमिका निभाई है । यही एक ऐसी संस्था है जिसके प्रति लोगों का विश्वास अभी भी कायम है ।
बी.एंड बी. : लगभग 30 वर्ष तक काम करने के पश्चात आपने एक उंच्चे ओहदे के लिए आवेदन दिया है ।
मि.दे. : अनेकों लोग मुझसे यह कहते आए हैं कि मुझे ऐसे आवेदन करने चाहिए । एक बार तो मुझे यह भी कहा गया था कि इसमें मुझे काफी कुछ हासिल हो सकता है । उच्च न्यायालय में जहां हम प्रैक्टिस करते हैं वहां ऐसा नहीं होता क्योंकि वहां हमें सब जानते हैं परन्तु जब आप दूसरे न्यायालयों में जाते हैं तो ऐसा हो सकता है । अभी भी गुजरात में वर्ष 2002 में हुए दंगों की सुनवाई के लिए तथा इसी प्रकार के अन्य ट्रिब्यूनलों में भी मैं जाता हूं जहां न्यायाधीश मुझे नहीं जानते हैं ।
बी.एंड बी. : आपके किसी एक मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने कस्टडी में हुई मृत्यू के लिए किसी व्यक्ति पर 20 लाख के मुआवजे के आदेश जारी किए थे ।
मि.दे. : हां, मैंने मुआवजे और अभियोग दोनों के लिए तजवीज की थी । चार अधिकारियों पर अभियोग चलाया जा रहा था तथा दस के खिलाफ नहीं चलाया जा रहा था । हमनें सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर दी है जिसकी सुनवाई अगले एक या दो महीनों में होगी ।
बी.एंड बी. : क्या आपको डर नहीं लगता ?
मि.दे. : मैं नहीं जानता, सच माने तो मुझे यह कहना अच्छा लगता है कि मुझे धमकी दी गई थी और अभी भी धमकियां दी जा रही हैं (हंसी) । इससे केवल मेरा थोड़ा अंहकार बढ़ता है । परन्तु न तो मुझे अब तक कभी धमकाया गया है और न ही कभी मेरे समक्ष किसी रिश्वत की पेशकश की गई है । इसके अलावा मैं और क्या कह सकता हूं ?
बी एंड बी : अपने एक मामले में आपने पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी केमरे की मांग भी रखी थी ।
मि.दे. : कस्टडी के दौरान दिए जाने वाले टार्चर की रोकथाम के लिए इसके अलावा अन्य कोई रास्ता ही नहीं है । और किस प्रकार आप इसे रोक सकते हैं ? अपराध कबूल करवाने के लिए या फिर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए लोगों की पिटाई करना भारतीय पुलिस की आदत में शुमार है । जांच के लिए अन्य तरीके भी होते हैं जिन्हे अपनाया जा सकता है ।
संभवत: अब कस्टडी में होने वाली मौतें महाराष्ट्र में कम हो गई हैं परन्तु पूरे देश में ये अभी भी सर्वाधिक हैं । इसका कोई कारण नहीं है [इसके लिए सांख्यिकी देखें] । छत्तीसगढ़ अथवा कश्मीर में ज्यादा होने के कारण मैं समझ सकता हूं परन्तु महाराष्ट्र में क्यों हो रहा है?
मैं यह नहीं मानता कि सारी पुलिस बुरी है अथवा सारी पुलिस अच्छी है । मुझे यह लगता है कि वैज्ञानिक तकनीकों के प्रयोग करने के लिए उन्हें पूरी तरह से प्रशिक्षित नहीं किया गया है । दूसरे किसी भी मामले के निपटान के लिए राजनैतिक दबाव भी काफी अधिक होते हैं । हिमायत बेग के मामले में मैं जब न्यायालय में पेश हुआ था तो जानते हैं क्या हुआ था । न्यायालय ने उसे किसी भी बम को प्लांट करने का दोषी नहीं माना था, उसे किसी की भी हत्या के लिए दोषी नहीं पाया गया था ।
आंतक के मामलों में तथा अन्य मामलों में ऐसा अक्सर होता है । किसी मामले को निपटाने के लिए पुलिस पर बहुत दबाव होते हैं । इसलिए वे ऐसे किसी भी व्यक्ती को पकड़ लेते हैं जो सही व्यक्ति हो भी सकता है और गलत भी । ऐसे व्यक्ति को पीट कर वे उसकी हालत ऐसी कर देते हैं कि वह कुछ भी स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाता है । यह वही है जो आपको अक्सर टेलीविजन पर दिखाई देता है और वास्तव में यही कुछ होता भी है ।
पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए आपके पास मानवाधिकार प्रशिक्षण उपलब्ध है परन्तु ऐसा प्रशिक्षण उन्हें तब दिया जाता है जब वे पुलिस अधिकारी बन चुके होते हैं । तब तक वैसे ही वे काफी कठोर हो चुके होते हैं । ऐसा प्रशिक्षण विद्यालयों में दिया जाना ज्यादा जरूरी है । और फिर इसके लिए जवाबदेही भी ज्यादा जरूरी होनी चाहिए । जब आपको यह लगने लगता है कि आप कुछ भी करके आसानी से बच निकल सकते हैं तो आप कानून तोड़ने लगते हैं । एक लिहाज से यह राजनैतिक भ्रष्टाचार जैसा ही है ।
बी एंड बी : उच्च न्यायालय में आंतरिक विस्थापन के संबंध में काफी कम मामले आते हैं । ऐसी खबरें समाचार पत्रों की हैडलाईन नहीं बन पातीं ।
मि.दे. : यह बिल्कुल टी आर पी की तरह ही है .... क्यों ठीक कह रह हूं न ? अगर अरनब गोस्वामी आदिवासियों के बारे में बात करें तो क्या उन्हें टी आर पी मिलेगी ? नहीं कदापि नहीं ।
इस प्रकार का काफी कुछ अब हमने एक प्रकार से अपने जीवन में अंगीकार कर लिया है । झुग्गी झोंपडि़यों को हर जगह गिराया जाता है । इसकी खबरे कितनी बार आती हैं ?
परन्तु मां के द्वारा की जाने वाली हत्या या बेटी के द्वारा की जाने वाली हत्या की खबर मनोरंजक होती है इसलिए ऐसी खबरें हर रोज आती हैं ?